भारत को उपनिवेश बनाने के वेटिकन के उद्देश्य को टेरेसा द्वारा कैसे दृढता दी गयी

टेरेसा की ढोंगी सामाजिक सेवा वस्तुतः भारत में हिंदुओंको क्रिस्चियन बनाने का साधन था जिस से वैटिकन को बहुत लाभ हुआ
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इससेअच्छा और क्या होता कि अंततः एक मासूम लड़की का निरंतर बलात्कार करने के आरोप में कन्नूर में कोट्टीयूर के ‘फादर’ रॉबिन वडक्केंचेरी को विशेष न्यायालय द्वारा 60 वर्षों की सजा कल ही प्रदान की गई है? यदि विकृत होने का ठप्पा ना लगे तो यह कहने में कोई आपत्ति नहीं है कि ‘फादर’ तो केवल इसलिए फंस गए कि इस अपराध को छुपाने की अपनी भरपूर कोशिशों, जैसे कि पीड़ित परिवार को धमकाना और साक्ष्यों को नष्ट करने के बाद भी वे अपने पीछे साक्ष्यों की एक लंबी श्रृंखला छोड़ गए थे। या कदापि यह भी संभव हैं कि उन्हें उस तरह का माफिया समर्थन नहीं मिला जैसा एक दूसरे सुपर बलात्कारी फादर बिशप फ्रैंको मुलक्कल को प्राप्त हुआ था।इसमें भी अधिक चिंता की बात तो यह है कि उस कुख्यात सीरियल यौन अपराधी का जेल से छूटने पर ईसाई समुदाय के ही कुछ वर्गों द्वारा नायक की तरह स्वागत किया गया।

राज्य के भीतर दूसरा राज्य

एक क्षण के लिए सोचिए। सोचिए कि इसका समूचे भारतीय समाज और राष्ट्र के लिए क्या अर्थ है। सोचिए कि किस तरह इस क्षरण ने एक प्राचीन उदार सभ्यता की अंतड़ियों को भीतर ही भीतर कितना जर्जर कर दिया है। समाचार तो इससे भी बुरे है। वेटिकन ने अपने उसी पुराने शब्दजाल का प्रदर्शन किया जैसा कि वे सदैव प्रभु के लिए अपराध करनेवाले अपने किसी पुण्यात्मा के ऐसे अपराधों के समय करते है, इसी वाक्छल के साथ कि अभी प्रकरण जाँच के अधीन है, उन्होंने झूठ कह दिया। जो मूल प्रश्न है, वह किसी ने नहीं पूछा या बड़ी ही आसानी से जिसकी उपेक्षा कर दी जाती है कि क्यों भारत सरकार एक पराये देश को अपने आंतरिक प्रकरणों में हस्तक्षेप की अनुमति देती है? या कि और कितना समय और कितनी घटनाएँ भारत में धर्मांतरण पर सीधा प्रतिबंध लगा देने के लिए आवश्यक है?

केरल इस बात का सबसे घातक उदाहरण है कि यदि चर्च ने सार्वजनिक जीवन में मुख्य भूमिका पर अधिकार कर लिया तो क्या कुछ हो सकता है; यह अपने आप में एक विधान बन जाता है, राज्य के भीतर एक अन्य राज्य। फ्रैंको मुलक्कल की आरंभिक न्यायिक कैद के साथ ही संदेहास्पद भूमि सौदों, बलात् वसूली, यौन अपराधों की संपूर्ण श्रृंखला, हत्या, बलात्कार और बाल यौन शोषण की घटनाओं संबंधी जानकारियों की जो बाढ़ आई हैं, और इन सभी के बाद भी उसका अपने घृणित साम्राज्य का आनंद लेते रहना तो इसी ओर संकेत करता है। वह तो केवल उस जैसे सैकड़ों गुप्त फ्रैंको मुलक्कलों का एक अंश मात्र है, जो अभी भी मुक्त घूम रहे हैं। दुख इस बात का है कि यदि इस पर तत्काल नियंत्रण नहीं किया गया तो पंजाब दूसरा केरल बनने ही वाला है।

कोलकाता की पिशाच

वेटिकन ने भारत में बुद्धिमानी से निवेश किया है।

और उसका सबसे प्रसिद्ध निवेश है, कोलकाता की पिशाच, मदर टेरेसा। विशिष्ट रूप से,वेटिकन के द्वारा गहरे विचार विमर्श के बार उन्हें 2016 में संत घोषित करने के निर्णय ने अद्भुत परिणामों को जन्म दिया है।

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निम्नलिखित टिपण्णी के माध्यम से लॉस एंजल्स के उप जिला एटर्नी और चार्ल्स कीटिंग के सहायक अभियोक्ता, पॉल टर्ली, टेरेसा द्वारा न्यायमूर्ति लांस इटो को लिखे उस चापलूसीभरे पत्र का उत्तर दे रहे थे, जो उन्होंने उन्होंने अमेरिका के करोड़ों निवेशकों को अपनी अल्प बचत योजनाओं में निवेश का लालच देकर ठगनेवाले चार्ल्स कीटिंग को दी जा रही कठोर सजा के समय लिखा था:

आपने न्यायाधीश से यह प्रार्थना की है कि जब चार्ल्स कीटिंग को उसके अपराधों की सजा दी जा रही हो, उसके हृदय में झांक कर देखा जाए, और वही किया जाये जो इस अवसर पर जीसस करते। मैं आपके सामने भी यही आव्हान रखता हूं।अपने आप से पूछिए कि यदि जीसस को किसी अपराध का लाभ प्रदान किया जाता तो जीसस क्या करते; जीसस उस समय क्या करते यदि वे उस धन के अधिकार में होते जो कि चोरी किया गया हो; जीसस उस समय अपने विवेक को कैसे विश्राम देते जब कोई चोर उनका शोषण कर रहा होता? आपको मि. कीटिंग के द्वारा धन दिया गया है, जिसे कि छल करके चोरी करने की सजा हो चुकी है। उसे इसके ऐच्छिक भोग की अनुमति ना दें....

अब प्रश्न यह है कि टेरेसा ने अमेरिका के न्यायाधीश को ऐसा पत्र क्यों लिखा? उत्तर यह है कि चार्ल्स कीटिंग उनके मित्र थे, दानदाता थे, उन्हें १९८० में १२.५ लाख डालर का दान कर चुके थे।

स्वाभाविक रूप से टर्ली के पत्र का टेरेसा के पास कोई प्रतिउत्तर नहीं था।चार्ल्स कीटिंग को उनके अपराधों के लिए दस वर्षों के कारावास की सजा दी गयी।

Christopher Hitchens
Christopher Hitchens

टेरेसा के लिए ४ सितंबर २०१६ को की गयी संत पद की घोषणा ने बीसवीं सदी की इस नोबेल पुरस्कार प्राप्त कैथोलिक नन, किन्तु रुग्णों और मरने जा रहे लोगों की आत्माओं की फसल काटनेवाली एक कट्टर और धर्मांध व्यक्ति की १९वीं पुण्यतिथि को स्मरणीय बना दिया, और यह सारा कुछ किया गया, ईसा मसीह और भगवान के नाम पर।

टेरेसा मानवीय मनोदशा में शाश्वत रूप से जड़ जमा चुकी उस भावदशा का प्रतिनिधित्व करती है, जो एक सुशोभित लिपटी हुई पवित्रता की वेदी पर हमसे हमारे विवेक के बलिदान की अपेक्षा करती है।

जो नए हैं, उन्हें यह बताना आवश्यक है कि टेरेसा की आलोचना मुख्य रूप से किन विषयों के आसपास टिकी होती है:

  • विवाह-विच्छेद, गर्भपात और गर्भधारण को लेकर उनका कट्टर रूढ़िवादी दृष्टिकोण

  • कोलकाता में अपनी धर्मशाला में रुग्ण और मर रहे लोगों की सेवा-सुश्रुवा करने, साथ ही मौत के मुँह में जा रहे लोगों का बपतिस्म करने की उनकी पद्धति, जोसहमति देने की अवस्था में किंचित ही रहे हो, ताकि वे “जीसस के साथ एकत्व” के अपने रास्ते पर एक चरण और बढ़ा सकें (ब्रायन कोलोडिजचुक: मदर टेरेसा - कम बी माई लाइट - "कलकत्ता की संत" पर निजी लेखन)

  • उनके मिशनरीज ऑफ चैरिटी को प्राप्त अपरिमित दान राशि का संदेहास्पद और पूरीतरह से अपारदर्शी व्यवस्थापन

  • सभी प्रकार के अति धनवान किन्तु संदेहास्पद और अपराधिक चरित्र रखनेवालों तथा आततायी शासकों के साथ उनकी मित्रता, जिन्हें उनसे प्राप्त धन और पक्षपातों के प्रतिफल में, उनके समस्त अशुभ कृत्यों की ना केवल अनदेखी करते हुए बल्कि उनका औचित्य ठहराते हुए, उनके द्वारा धर्मनिष्ठ होने का चरित्र प्रमाण पत्र प्रदान करना।

ये रहस्योद्घाटन सर्वप्रथम उनके सबसे मुखर और प्रसिद्ध आलोचक क्रिस्टोफर हिचेन्स द्वारा उनकी मौलिक कृति “द मिशनरी पोजिशन: मदर टेरेसा इन थ्योरी एंड प्रैक्टिस”में अनावृत किये गए थे।

हिचेन्स का ही अनुकरण करते हुए औषधीय चिकित्सक डॉ. अरूप चटर्जी ने अपना ग्रन्थ ‘समग्र मदर टेरेसा - अंतिम निर्णय’लिखा जिसमें की गयी टेरेसा की अपनी कड़ी आलोचना के समर्थन में उन्होंने व्यापक अभिलेखों का आश्रय लिया था।

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दिवंगत अमेरिकी सामाजिक समालोचक और पुलित्जर विजेता पत्रकार मरे केम्पटन टिपण्णी करते हैं कि “टेरेसा का दीन-हीनों के प्रति प्रेम आश्चर्यजनक रूप से उनके नश्वर अस्तित्व के प्रति सुधार की किसी भी अपेक्षा और आकांक्षा से परे हैं, और यह केवल मानव जीवन के सर्वोत्तम विकास, यथा शांति और गरिमा से मरने, तथा अनंत की ओर जानेकी प्रगति को और गति प्रदान करने पर ही केंद्रित हैं”।

हिचेन्स एवं चटर्जी, दोनों ही प्रतिबद्ध नास्तिक थे, उन्हें टेरेसा के बारे में किये गए उनके अनुसन्धानों से कुछ भी प्राप्त होनेवाला नहीं था।

मैल्कम मोगरिज के द्वारा एक नकली संत की रचना

बीबीसी के मैल्कम मगर्ज़िज के वृत्तचित्र ‘समथिंग ब्यूटीफुल फॉर गॉड’के माध्यम से प्रस्तुत किए जाने के पश्चात उन्हें तुरंत ही विश्वव्यापी ख्याति मिल गई। उन्हें एक ऐसी पुण्यात्मा मान लिया गया जो किसी भी नश्वर व्यक्ति की समीक्षा के परे हो। यह किंवदंती उन्हें नोबेल पुरस्कार मिलने तक केवल बढ़ती ही रही। नोबेल पुरस्कार प्राप्त करते समय अपने संबोधन में उन्होंने गर्भपात को “शांति का सबसे बड़ा विनाशक” कहा था। हिचेन्स इस परमपूज्य पद की ओर टेरेसा के उन्नयन को कुछ यूँ समझाते हैं:

धनाड्यों का विवेक अक्सरदरिद्र होता है। कई लोग “दीन हीनों में भी सबसे विपन्न” व्यक्ति के लिए कार्य करने वाले कार्यकर्ता को धन भेजकर अपनी आंतरिक व्याकुलता को कम करना चाहते थे। लोग यह स्वीकार नहीं करना चाहते कि उन्हें मूर्ख बनाया या ठगा गया है, और इसीलिए मिथक के पीछे काम कर रहा न्यस्त स्वार्थ बढ़ते चला गया, और आलसी मीडिया कोई भी अनुवर्ती प्रश्न पूछने का कष्ट उठाने को भी तैयार नहीं था।

मदर टेरेसा नामक इस घटनाक्रम पर अपने ऐसे ही एकविश्लेषण में वे हमें “तर्क के प्राथमिक सिद्धांत” का स्मरण दिलाते हुए कहते है कि अतिविशिष्ट दावे अतिविशिष्ट साक्ष्य मांगते हैं और यदि कोई दावा बिना साक्ष्य के किया जा सकता है तो उसे बिना साक्ष्य के निरस्त भी किया जा सकता है।

टेरेसा की धार्मिकता तथा रुग्ण, दरिद्र और मर रहे लोगों के प्रति सेवा सुश्रुआ के अँधेरे पक्ष पर सबसे निर्णायक और घातक अकादमिक प्रमाण मॉन्ट्रियल विश्वविद्यालय के प्रोफेसरों सर्ज लारिवे और जेनेवीव चेनेर्ड और ओटावा विश्वविद्यालय की कैरोल सेनेचेल द्वारा किये गए अध्ययन के माध्यम से बाहर आया।

Police Questioning Nirmal Hriday Nuns
Police Questioning Nirmal Hriday Nuns

यह शोध पत्र "स्टडीज़ इन रिलिजन/साइंसेज रिलिजियस" नामक जर्नल के मार्च २०१३ के अंक में लेस कोटेस्टेनब्रेक्स डी मेर टेरेसा (द डार्क साइड ऑफ़ मदर टेरेसा) शीर्षक से प्रकाशित हुआ था और “१९७९ की नोबेल शांति पुरस्कार विजेता और द ऑर्डर ऑफ मिशनरीज ऑफ चैरिटी (ओएमसी) की संस्थापक अल्बानियाई-भारतीय रोमन कैथोलिक नन, कलकत्ता की मदर टेरेसा (जन्म- अंजेज़े गोंक्से बोजाक्सीहु) के जीवन और कार्य पर उपलब्ध ९६ प्रतिशत साहित्य को समाहित करनेवाले २८७ दस्तावेजों के विश्लेषण का परिणाम है”।

इन आलेखों में टेरेसा का अपना पत्रव्यवहार और पत्र सम्मिलित है, जिन्हें हम आगे देखने ही वाले है।

वेटिकन एवं टेरेसा उनके अपने शब्दों में

वेटिकन द्वारा उन्हें संत की उपाधि प्रदान करने के पश्चात यह अनिवार्य हो जाता है कि उनके और वेटिकन के रिश्तों की गहनता को और जाँचा परखा जाये।

वेटिकन ईसाई विश्वास के जिस पक्ष को सबसे दृढ़तापूर्वक नियंत्रित करता आया है, वह हैपदानुक्रम का विषय, अर्थात सदासर्वदा निसंदिग्ध रूप से आज्ञापालन करते रहना. प्रत्येक बिशप, पुजारी, पादरी, नन और मदर को अपना स्थान पता होना ही चाहिए। वेटिकन कभी भी किसी अनधिकृत अथवा मुक्त क्रांतिकारी ईसाई संत को मान्यता नहीं देता है।

अतः जब लोरेटो बहनों में से एक टेरेसा ने अपने वरिष्ठों से १९४६ में अपना स्वयं का पंथ शुरू करने की अनुमति मांगी तो उनकी प्रार्थना आर्चबिशप फ़र्डिनेंड पेरियर द्वारा ठुकरा दी गयी थी। दो वर्षों की निरंतर विनंती के पश्चात वेटिकन ने अंततः उन्हें यह अनुमति दे दी।इसके दो माह पश्चात टेरेसा कलकत्ता की धरती परथी।

१९६२ में मुंबई में भारतीय कैथोलिक समुदाय के एक समारोह में उन्होंने द्वितीय वेटिकन परिषद द्वारा शुरू किये जा रहे धार्मिक सुधारों का कड़ा विरोध किया और “अधिक काम और अधिक श्रद्धा, ना कि सिद्धांत संशोधन” का आह्वान किया था।

आधारभूत ईसाई सिद्धांत में उनका विश्वास परिपूर्ण और शाब्दिक था। जैसा कि हिचेन्स लिखते है,

उनका दृष्टिकोण तो रूढ़िवादी कैथोलिक नियमों के अधीन होकर देखा जाये तो भी अति-प्रतिक्रियावादी और कट्टरपंथी था। ईसाई पंथ में विश्वास रखने वालों के लिए तो वैसे भी गर्भपात से घृणा करने और उससे बचने की आज्ञा है ही, किंतु उन्हें इस कथन कि “गर्भपात शांति का सबसे बड़ा विनाशक है” की पुष्टि करने की कोई आवश्यकता नहीं हैं, जिसपर कि मदर टेरेसा का गहरा जोर था।

गर्भपात, विवाह विच्छेद और गर्भ निरोध संबंधी टेरेसा के सार्वजनिक दृष्टिकोण को लेकर वेटिकन को पहले ही सतर्क कर दिया गया था, किंतु मुगेरिज के काम द्वारा वैश्विक स्तर पर उनके पुण्यात्मा होने को जो प्रसिद्धि मिली, उसके कारण वेटिकन कुछ नहीं कर सकता था। अतः वेटिकन भी उनकी मिथकीय प्रतिमा के निर्माण में मौन होकर लग गया।

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मदर टेरेसा को लेकर एक अल्प श्रुत तथ्य मॉन्ट्रियल विश्वविद्यालय के अनुसंधान में भी सामने आया था। वे स्वयं अपने जीवन में अनेक स्तरों पर श्रद्धा की कमी के संकट से जूझती रही थी। उनके अपने शब्दों में:

मेरे लिए मौन और रिक्तता इतनी महान है कि मैं देखती हूं किंतु कुछ दिखाई नहीं देता, -सुनती हूं किंतु कुछ सुनाई नहीं देता,-- मेरी जिव्हा हिलती है किंतु मैं बोल नहीं पाती।“प्रभु के लिए इतनी गहरी लालसा- और--लौट आना—रिक्तता- कोई विश्वास नहीं—कोई प्रेम नहीं—कोई उत्साह नहीं। आत्माओं (कोबचाने का) का कोई आकर्षण नहीं-- स्वर्ग का कोई अर्थ नहीं।“ “मैं किसलिए इतने प्रयास कर रही हूँ? यदि कोई ईश्वर नहीं है- कोई आत्मा भी नहीं हो सकती है- यदि कोई आत्मा नहीं है, तब जीसस- आप भी सत्य नहीं हो...। मेरे अंतरंग में अनगिनत अनुत्तरित प्रश्न अपने आपको प्रकट करने से रोकते हैं--ईशनिंदा के कारण-- यदि कहीं ईश्वर है-- कृपया मुझे क्षमा करना-- जब मैं अपने विचारों को स्वर्ग की ओर उठाती हूं-- वहां इतनी निर्णायक रिक्तता हैं कि मेरे ही विचार तेज चाकू की तरह मेरी ओर लौट आते हैं और मेरी अपनी आत्मा को छलनी कर देते हैं। मुझे कहा जाता है कि प्रभु मुझे प्यार करते हैं-- उसके बाद भी अंधकार और ठंडेपन तथा रिक्तता की वास्तविकता इतना गहरी है कि कुछ भी मेरी आत्मा को स्पर्श नहीं करता। क्या मैंने पवित्र ह्रदय की पुकार के सम्मुख अंधा समर्पण करके कोई भूल कर दी थी?”

विडंबना यह है कि व्यक्तिगत जानकारियों का यह पिंड फादर ब्रायन कोलोडिएजचुक द्वारा ढूंढ कर निकाला गया था जिन्हें कि पोप जॉन पॉल द्वितीय ने इस बात की जाँच के लिए नियुक्त किया था कि क्या मदर टेरेसा के संत होने की घोषणा की जा सकती है। निस्संदेह वे फादर ब्रायन ही थे, जो कि एडवोकेटस देई (ईश्वर के अधिवक्ता) थे ना कि एडवोकेटस डायबोली (शैतान के अधिवक्ता), जिन्होंने टेरेसा को संत घोषित होने के अयोग्य घोषित कर दिया था। एडवोकेटस डायबोली (शैतान के अधिवक्ता) का पद तो पोप जॉन पॉल द्वितीय पहले ही समाप्त कर चुके थे।

Pope John Paul II
Pope John Paul II

संत घोषित किये जाने संबंधी वेटिकन के अपने ही नियमों के अनुसार, टेरेसा द्वारा अपने विश्वास पर प्रश्नचिन्ह खड़े करने के तथ्य ने,उन्हें स्वयंस्फूर्त रूप से संत-पद प्राप्त होने की घोषणा के अयोग्य बना देना चाहिए था।इस क्षति को और गहरा करते हुए कोलकाता के आर्चबिशप डिसूजा ने कहा था कि अपने जीवन के अंतिम दौर में “उनकी यातनामय और निद्राविहीन अवस्था ने इतनी चिंता पैदा कर दी थी कि उनके ऊपर झाड़-फूंक तक की गई थी।“

पोप फ्रांसिस ने इसके बाद भी उन्हें २०१६ में संत घोषित कर दिया।

जब तक निर्मित ना हो, नकली चलाइए

संत घोषित होने के अपने अवसर को तगड़ा समर्थन देने के लिए किसी के लिए चमत्कारों को करते रहना अत्यंत लाभदायक है। टेरेसा के प्रकरण में यह संभव हुआ मोनिका बेसरा के रूप में, जिसने दावा किया था की टेरेसा के चित्र से प्रस्फुटित प्रकाश किरणों के कारण उसका कैंसर का ट्यूमर समाप्त हो गया था। बाद में यह ज्ञात हुआ कि उन्हें कोई कैंसर का ट्यूमर था ही नहीं, बल्कि उन्हें पित्ताशय में सूजन थी जोकि चिकित्सक द्वारा दी गयी दवाओं से ठीक हुयी थी। इस तथ्य की पुष्टि उनके चिकित्सक डॉक्टर रंजन मुस्ताफी ने की थी।किन्तु इसके पश्चात भी वेटिकन ने कभी डॉक्टर मुस्ताफी से बात नहीं की और उस कथित चमत्कार को सत्य मान लिया। इसीतरह पोप फ्रांसिस ने दिसंबर 2015 में एक दूसरे चमत्कार को भी मान्यता दे दी, जिसमें दावा किया गया था कि 2008 में टेरेसा ने ब्राजील के एक व्यक्ति, जिसे एक से अधिक ब्रेन टयूमर्स थे,अपने अंतर्मन के अनुसरण द्वारा ठीक कर दिया था।

यह घटना हमें पुनश्च पोप जॉन पॉल द्वितीय की ओर लेकर जाती है, जिनके नाम यह रिकॉर्ड है कि उन्होंने कैथोलिक चर्च के इतिहास में सबसे अधिक संख्या में संतों के संत होने की घोषणा की थी। ईसा पश्चात सन १५८८ से लेकर पोप जॉन पॉल द्वितीय के पूर्व की अवधि तक कुल मात्र २८५ संतों को यह उपाधि प्रदान की गयी थी। जबकि पोप जॉन पॉल द्वितीय ने अपने केवल २७ वर्षों के कार्यकाल में कुल ४८० संतों को यह पदवी प्रदान कीहै।

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पोप जॉन पॉल द्वितीय ने संत निर्मित करने की कैथोलिक चर्च की स्थापित प्रक्रिया को भी अधिक सरल कर दिया। टेरेसा प्रकरण में उन्होंने परमानंद अवस्था वाली अवधि को कम कर दिया जोकि संत घोषित होने की यात्रा का पहला चरण है। उस समय तक किसी भी व्यक्ति केलिए परमानंद वाली अवस्था में नामित होने के लिए मृत्यु के बाद ५ वर्ष की अवधि बीतना आवश्यक था। टेरेसा को यह नामांकन उनकी मृत्यु के केवल १ वर्ष बाद ही प्रदान कर दिया गया और वर्ष २००३ में उनकी परमानंद वाली अवस्था घोषित कर दी गयी।

सभ्यतागत संदर्भ एक कुंजी है

मदर टेरेसा को लेकर पोप जॉन पॉल द्वितीय की गतिविधियों को हमें एक विस्तृत सभ्यतागत संदर्भ में देखना आवश्यक है। भारत दुनिया का शायद अकेला ऐसा विशाल देश है, जहां की बहुसंख्यक जनता एक गैर अब्राहमिक धर्म, सनातन धर्म अर्थात हिंदू धर्म का पालन करती है।

१९९९ की दीपावली

चर्च के प्रभाव को वैश्विक स्तर पर विस्तारित करने के पक्ष में होने के लिए विख्यातजॉन पॉल द्वितीय भारत आये और ईसाई आस्था रखनेवाले लोगों को “तीसरी सहस्त्राब्दी में एशिया में आस्था की भारी उपज काटने” के लिए प्रोत्साहित करनेवाले “एक्लसियस इन एशिया” नामक पत्र पर हस्ताक्षर करते हुए, उन्होंने आव्हान किया कि, “पश्चिम में ईसाई धर्म का पालन कर रहें लोगों में आ रही कमी की आपूर्ति एशिया के धर्मान्तरितों से की जाये”।

यूरोप में ईसाई धर्म लगभग मृतप्रायः अवस्था में है, जहां गिरजाघरों में उपस्थिति का औसत एक या दो प्रतिशत के आसपास ही है, वहीं कई गिरजाघर तो पब, रेस्तरां या नाइट क्लबों में परिवर्तित हो रहे हैं। उग्रपंथी इस्लाम के अतिरिक्त भय, जिहादी हिंसा में वृद्धि और इस्लामी देशों से हो रहे अनियंत्रित अवैध आव्रजन के कारण ईसाई धर्म वहां विस्मृति की खाई में धकेले जाने का संकट झेल रहा है।

वहीं मध्ययुगीन धर्मयुद्ध के विपरीत आज पोप के पास ना तो वैसे संसाधन है और ना ही वे अधिकार, और ना ही यूरोप के देशों की वर्तमान राजनीतिक प्रणालीउस संरचना की है, जो इस्लाम के विरुद्ध किसी भी भौतिक युद्ध को छेड़ने में ईसाई धर्म की कोई सहायता कर सकें। और इसीलिए उसे उन नए स्थानों की खोज है, जहां मरुस्थल में जन्मा यह संप्रदाय निरंतर होते धर्मांतरण के माध्यम सेअपने लिए कोई सुरक्षित आश्रय पा सके। १२५ करोड़ की बहुसंख्यक हिंदू लोकसंख्या के साथ भारत उनके लिए मानो तैयार फसल काटने की सबसे उत्तम जगह है।

अतः यह दावा करना कोई दूर की कौड़ी नहीं है कि टेरेसा को संत घोषित करना वेटिकन के द्वारा भारत में अपनी जड़ों को गहरा और विस्तृत करने की योजना का ही एक अंश मात्र है। वैसे भी अधिकांश भारतीयों का एक बड़ा हिस्सा, जिनमें गैर ईसाई सम्मिलित है, बिना किसी समीक्षा के टेरेसा को एक संत महिला के रूप में मान्यता देता है और उन्हें पूजता है। संत पद की अधिकृत घोषणा ने इस दावे को जैसे और शक्तिशाली बना दिया है।

क्या हम अपने अस्तित्व के बारे में गंभीर हैं?

इसमें भारत के लिए चिंता के कई कारण है। हम हमारी सभ्यता की जड़ों को बनाए रखना चाहते हैं, जो भारत को दुनिया के बाकी देशों से अलग एक विशिष्टता प्रदान करती है, या हम फिलीपींस की तरह पश्चिम की एक बाहरी ईसाई चौकी बन जाना चाहते है? इस विषय में बोलते हुए फिलीपींस के राष्ट्राध्यक्ष ने पिछले सप्ताह ही घोषणा दी थी कि वे अपने देश का नाम बदलकर ''महर्लिका'' जैसा कुछ रखना चाहते है, एक ऐसा शब्द, जो सभ्यतागत रूप से हिंदू धर्म जैसा प्रतिध्वनित होता हो।

निश्चित ही हिंदू धर्म के मूल आश्रय स्थान के रूप में हम इससे भी अधिक बहुत कुछ कर सकते हैं।

और इसका पहला चरण है, साहस के साथ खड़े रहना।

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