साधुओं के धर्मनिरपेक्ष नरसंहार का नग्न नृत्य :और कितने लक्ष्मणानंद सरस्वती के बलिदान और विस्मृत किये जाने है?

पालघर में माओवादी आतंकियों के समर्थन से भीड़ द्वारा की गयी साधुओं की ताजा निर्मम हत्या पर एक विवेचन
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भूमिका

मैं अपने से ही शुरू करता हूं। भीड़ द्वारा २ साधुओं की क्रूरतम हत्या और एक 70 वर्षीय असहाय साधु के भयानक और पीड़ादायी करुण अंत का दृश्य भी कल भुला दिया जाएगा। भले ही यह सुनने में निर्मम लगे, किंतु वर्तमान हिंदू अवस्था के बारे में जो तुलना मुझे सबसे उपयुक्त लगती है, वह है एक बोझ ढोनेवाले पशु की, जो अपनी पिटाई को लेकर इतना अभ्यस्त है कि उसे अपने शरीर पर यदा-कदा होने वाले अप्रत्याशित, आकस्मिक क्रूरतापूर्ण आघात अब आहत नहीं करते... निस्संदेह इस यातनापूर्ण मार के पश्चात भीषण वेदना, फोड़े फुंसियां और क्षति तो होती ही है, किन्तु उनका कोई निर्णायक अर्थ नहीं होता, उसके दर्द का भी कोई अर्थ नहीं होता।

इसे समूचा हिंदू समाज स्वयं सत्यापित कर सकता है। जब किसी एक और साधू, सन्यासी या स्वामी की सार्वजनिक रूप से हत्या होती है, बस तभी हमारे मस्तिष्क में स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती के चित्र की रूपरेखा किसी धुंधले धब्बे की तरह उभर कर आती है। और इसके पश्चात जिस सन्यासी की ताजा हत्या हुई होती है, उसका नाम हमारी स्मृतियों के श्मशान घाट में संचित रक्त से सनी हुयी चित्रप्रदर्शनी का एक अंश बनाकर भुला दिया जाता है।

इन दो गरीब मृतक साधुओं के बारे में लिखने या आक्रोश व्यक्त करने का भी कोई अर्थ नहीं हैं ... अत्यधिक विलाप निष्क्रियता का एक स्वाभाविक बहाना बनचुका है। जो व्यक्ति गला फाड़ कर रोता है या सड़क पर लोटता है, इस भीड के द्वारा सबसे अधिक पिटाई उसी की होती है, जो इसकी प्रत्येक आघात सहन करने की क्षमता के साथ बढ़तेही चले जाती है।

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निम्न लेख मैंने 6 वर्ष से कुछ पूर्व स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की निर्मम हत्या के बाद लिखा था। यह मेरा उस साहसी वीर सन्यासी के ऊपर तीसरा लेख था और मैं मानता हूं कि यह आज भी पहले जितना ही प्रासंगिक है। बाद में हुयी घटनाओं के प्रकाश में मूल लेख को सामयिक बनाने के लिए इसमें कुछ जगह आंशिक परिवर्तन किये गये है ।

एक साधु, जिसकी मौत पर कोई शोक व्यक्त नहीं किया गया

23 अगस्त 2008 की दुर्भाग्यपूर्ण रात्रि मेंजब धर्मांध ईसाइयों की सशस्त्र भीड़ द्वारा 80 वर्षीय स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती की गोली मारकर क्रूरतापूर्ण हत्या की गयी थी, उसकी दूसरी ही सुबह मैंने लिखा था कि वे ग्राहम स्टेंस नहीं है, जो हिंदू समाज के उन अगणित विध्वंसकों में सम्मिलित थे जिनका अस्त्र ही उनकाकथित प्यार और करुणा था। हमारी धर्मनिरपेक्ष व्यवस्था द्वारा, मीडिया जिसकी सबसे ऊंचे दामों पर रखी गई गणिका समान है, कभी कोई शोक स्वामी की मौत पर व्यक्त नहीं किया गया था।

वास्तविक अर्थो में क्रूरता इस बात में नहीं है कि उनकी निर्मम हत्या पर कोई शोक ही व्यक्त नहीं किया गया था, बल्कि इस बात में है कि इस हत्या को तत्काल विस्मृति के गर्त में धकेल दिया गया।बाद में जैसे ही उनकी हत्या के बाद सांप्रदायिक दंगे भड़के, यही धर्मनिरपेक्ष अधिष्ठान था, जो तत्काल सक्रिय हो गया और उसने ईसाइयों पर हुए हमलों के लिए प्रतिशोध से भरे हिंदूओं और हिंदू समूहों को दोषी ठहरा दिया था!

उनकी हत्या के केवल 2 दिन बाद, सोहिनी सेनगुप्ता ने (जो कि उन दिनों अधिकांश स्थानों पर दिखाई देनेवाली पश्चिम की एक सक्रिय भारतीय गुलाम थी) न्यूयॉर्क टाइम्स में हिंदुओं को दोषी ठहराते हुए लिखा था कि उनकी इस क्रूर दुर्दशा को तो उन्होंने स्वयं ही आमंत्रित किया था। दैनिक न्यूज़ वीक के तत्कालीन संस्करण में भी “भारतीय हिंदुओं द्वारा ईसाइयों पर हमले की आशंका” इस शीर्षक के साथ एक लेख छपा था, उसमें ऐसा चित्र रंगा गया था मानो भारत के हिंदुओं द्वारा ईसाइयों को आतंकित किया जा रहा हो। USCIRF जैसे अमेरिकी सरकारी निकायों की यह एक सदा सर्वदा प्रयुक्त की गयी कार्यप्रणाली है कि वे ऐसे प्रचार अभियान की समाचार कतरनें संकलित करते हैं और पूर्णतः अमेरिका के करदाताओं के करों से पोषित एक वार्षिक ईसाई धर्मप्रचार पत्रक प्रकाशित करते हैं जिसे कि धर्म स्वतंत्रता रिपोर्ट कहा जाता है। यह तथ्य अपने आप में एक गहन विवेचन का विषय है कि अमेरिका जैसा देश, जिसका कि अपना राष्ट्रिय चरित्र संपूर्णतः अधार्मिक रहा है, वह इसतरह के छल प्रपंचों द्वारा हस्तक्षेप की अनुमति देता है।

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यद्यपि वह काल अलग था, जब धूर्तता संभव थी क्योंकि देश के टुकड़े करने वाली ताकतों का एक गठजोड़ भारत पर शासन कर रहा था और प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी जैसा कोई निर्णायक नेता सत्ता में नहीं था। आज ये सारे दांव उल्टे पढ़ चुके हैं। और कोई आश्चर्य नहीं है कि 2014 के पश्चात का पूरा अमेरिकी मीडिया बिना किसी अपवाद के इन हिंदुओ पर होनेवाले हमलों एवं उनकी हत्याओं को न्यायोचित ठहराते हुए, हिंदुओं के विरुद्ध जैसे एक मोर्चा ही खोलकर बैठा है।

स्वामी लक्ष्मणानंद सरस्वती उड़ीसा के कंधमाल में 1968 में आए थे, जहाँ चाकपाड़ा में उन्होंने दलितों, आदिवासियों और वंचितों की सेवा और उत्थान के लिए एक आश्रम स्थापित किया था। इस निस्वार्थ सेवा का एक उद्देश्य विदेशी ईसाई मिशनरीज द्वारा विशालकाय स्तर पर किये जा रहे धर्मांतरण को रोकना भी था, जिनकी सीधे साधे सरल हिंदुओं के धर्मांतरण करने की परोपजीवी रणनीतियों से हम रुग्ण होने की सीमा तक परिचित है ही। बड़े स्तर पर हो रही धर्मांतरण की ये गतिविधियां, उत्तर-पूर्व, जोकि अब नाममात्र के लिए ही भारत का भूभाग हैं,के पृथकतावादतथा रवांडा में हुए नरसंहार की तरह स्थानीय सामाजिक सद्भावको हिंसक नुकसान पहुंचारही थी।

एक दुर्भाग्यशाली मोड़ पर स्वामी लक्ष्मणानंद स्वयं इस प्रवाह के क्रूर शिकार बन गए क्योंकि उनके सभी हत्यारें ईसाई धर्म में धर्मान्तरित होने से पूर्व हिंदू ही थे, और उन्होंने गोली मार कर केवल इसलिए उनकी निर्मम हत्या की, क्योंकि वे शेष हिंदूओं को उनकी तरह होने से रोक रहे थे।

Swami Lakshmananda Saraswati
Swami Lakshmananda Saraswati

स्वामी लक्ष्मणानंद की जीवन भर की तपस्या को सत्यापित करते हुए, एक दुर्लभ उदाहरण के रूप में, फूलबनी न्यायालय के न्यायाधीश ने सात आरोपियों को उनकी हत्या का दोषी ठहराया, जो सारे ईसाई धर्म में धर्मान्तरित होने से पूर्व हिंदू ही थे. वे उस भीड़ का हिस्सा थे जिसने स्वामी के आश्रम पर गोले बरसाए थे और अंधाधुंध गोलियों की बौछार में स्वामी सहित अन्य अनेक व्यक्तियों की हत्या की थी। यह निर्णय उड़ीसा में प्रचलित मिशनरीज और माओवादीओं के गठजोड़ को भी सामने लाता है।

उड़ीसा में धर्मांतरण उद्योग की पैठ कितनी भयानक और गहरी है, इसे 21 साल पुराने एक दूसरे घटनाक्रम से भी नापा जा सकता है। 1999 में ऑस्ट्रेलियाई धर्म प्रचारक ग्राहम स्टेंस की दारासिंह द्वारा की हत्या की जांच के लिए गठित जस्टिस वाधवा की रिपोर्ट एक ऐसा महत्वपूर्ण अभिलेख है, जो देश में चल रहे ईसाई धर्मांतरण माफिया के एक अल्पसे पक्ष को उजागर करके रख देती है। अपनी रखैल मिडिया के साथ देश के धर्मनिरपेक्ष अधिष्ठान द्वारा जो उग्र कोहराम उस समय मचाया गया था, उसमेंतो ग्राहम स्टेंस को एक साहसी वीरगति प्राप्त नायक का ही दर्जा दे दिया गया था, जबकि वास्तविकता यह है कि वह धर्मांतरण गतिविधी में लगा एक धर्मांध व्यक्ति मात्र था, जिसका हिंदू संदर्भो में अर्थ होता है, हिंदू समाज के सामाजिक सद्भाव को हिंसक तरीके से अस्तव्यस्त कर देना।यह केवल संयोग मात्र ही नहीं है कि सत्ता में यूपीए के रहते स्टेंस की हत्या के मात्र दस वर्षों के भीतर ही धर्मान्तरण उद्योग का यह जाल अपनी जड़ें और गहरी और विस्तारित कर चुका है। यदि अतीत में दारासिंह के समान किसी हिंदू कार्यकर्ता ने ग्राहम स्टेंस की गिद्ध जैसी मिशनरी गतिविधियों से त्रस्त होकर, कोई रास्ता शेष ना रहने से उसकी हत्या की होगी तो दस वर्षों के पश्चात उसी धर्मप्रचार समूह ने कमांडो ईकाई शैली की अपनी कार्यवाही में एक शांत आध्यात्मिक संत और उसके भक्तों की हत्या के साथ उसका हिसाब चुकता कर दिया था।

यद्यपि इस बार मिशनरीज अकेली नहीं थी।

फिर भी पहले बात मिशनरीज की। स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या की जाँच के लिए उड़ीसा सरकार द्वारा गठित विशेष जाँच दल ने पाया कि इस प्रकरण के सभी मुख्य मार्ग उसे वर्ल्ड विजन नामक संस्था के द्वार तक ले जा रहे थे। यह मात्र संयोग नहीं है कि वर्ल्ड विजन “दुनिया की सबसे बड़ी ईसाई चर्च मिशन एजेंसी” है, जिसके कार्यक्रमों में तीसरे विश्व के देशों में “क्षेत्र विकास कार्यक्रम” (ADP) जैसे किसी नाम पर, स्वच्छ पेयजल, स्वास्थ्य सेवा औरशिक्षा तक पहुंच को सुरक्षित करना तथा आय वृद्धि परियोजनाओं की रचना करना सम्मिलित हैं।किन्तु इन विकास कार्यों के साथ ही एक आध्यात्मिक घटकभी जोड़ दिया गया है- वह घटक है, बाइबल कक्षाओं का। वास्तव में भारत स्थित वर्ल्ड विजन योजना स्वयं एक "ईसाई राहत और विकास एजेंसी," ही है और उसे अमेरिका की आंतरिक राजस्व सेवा (आईआरएस) “ईसाई चर्च मिनिस्ट्री” के रूप में ही वर्गीकृत करती है।उपर से इसका घोष वाक्य अपने आप में इसके आशय और गतिविधियों का सबसे प्रखर प्रचारक है: “वर्ल्ड विजन ईसाईयों की एक अंतरराष्ट्रीय साझेदारी संस्था है,जिसका मुख्य उद्देश्य है दरिद्रों और शोषितों के लिएकार्य करते हुए, मनुष्य के रूपांतरण को प्रोत्साहितकरना तथा न्याय की प्राप्ति और प्रभु के साम्राज्य के शुभ समाचारों का साक्षीदार बनने के लिए, अपने प्रभु और रक्षक जीसस क्राइस्ट का अनुकरण करना”।स्पष्ट शब्दों में वर्ल्ड विजन एक घोषित मिशनरी संघठन है, जिसका एक उद्देश्य वैश्विक स्तर पर गैर ईसाईयों को ईसाई धर्म में धर्मान्तरित करना रहा है।

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विशेष जाँच दल की जाँच में ही यह तथ्य भी सामने आया था कि कांग्रेस के उड़ीसा से राज्यसभा सदस्य राधाकांत नायक अनेक अवसरों पर स्वामी लक्ष्मणानंद पर हुए हमलों को प्रेरित करनेवालों में थे, भले उनका प्रत्यक्ष सहयोग उनमें में ना रहा हो। यह भी मात्र कोई संयोग नहीं है कि राधाकांत नायक एक धर्मान्तरित ईसाई थे और तत्कालीन समय में ‘वर्ल्ड विजन’की उड़ीसा इकाई के प्रमुख थे। पुलिस ने उन्हें त्वरित अपने अन्वेषण के अधीन रखा था और बाद में हुयी जाँच में यह स्पष्ट हो गया था कि घटना के सूत्र उन तक पहुंच रहे थे।

और तो और, दिसंबर २००७ में, इस हत्याकांड के ८ माह पूर्व, जब स्वामी लक्ष्मणानंद के वाहन पर हमला किया गया था, स्वामी द्वारा पुलिस को की गयी शिकायत में राधाकांत नायक का नाम सम्मिलित था। मानो इतना ही पर्याप्त ना हो, यह तथ्य कि पुलिस द्वारा वर्ल्ड विजन के एक कमर्चारी प्रदेश कुमार दास को उससमय पकड़ा गया था, जब वह पलायन करने ही वाला था, इस संदेह को बल देता है कि स्वामी की हत्या में मिशनरी संघठन की भूमिका रही थी ।

अनुवर्ती जाँच में भी यही सत्य सामने आया कि इस हत्याकांड में माओवादियों और मिशनरीज की मिलीभगत थी।हत्याकांड के तुरंत पश्चात माओवादियों ने इसमें अपना हाथ होने से अस्वीकार किया था, किन्तु बाद में उनके ही कैडर में से कुछ ने इस का दायित्व लेते हुए पुलिस के सामने आत्मसमर्पण किया था। स्वामी की हत्या के प्रमुख सूत्रधार के रूप में सीपीएम(माओवादी) के एक खूंखार नेता, सव्यसाची पांडा के विरुद्ध आरोप पत्र प्रस्तुत किया गया था। इससे इस हत्याकांड के पीछे का मिशनरीज और माओवादियों गठजोड़ पूरीतरह स्पष्ट है।

२००८ की ही तरह वामपंथी लिबरल और उनकी अंकशायिनी बने मिडिया ने स्वामी लक्ष्मणानंद के हत्यारों को मिली सजा के समाचार को भी वैसे ही दबा दिया था,मानो इस घटना का कोई महत्व ही ना हो।यदि उनकी जगह पर धर्मान्तरण के कुत्सित व्यापर में लगे किसी ग्राहम स्टेंस की मौत हो जाती, तो उस घटना की चर्चा को आज तक जीवित रखा जाता।

इसमें कोई संदेह नहीं कि स्वामी ने उस नायक की तरह मृत्यु का वरण किया था, जिसने अपनी सदियों पुरानी सनातन सभ्यता और इस पवित्र भूमि को बांधने वाले और आज भी उसे एकत्रित रखनेवाले इसके सांस्कृतिक सूत्रों की रक्षा, उनके संरक्षण और विस्तार के लिए अपने प्राणों की आहुति दी थी। वे इस देश को पाकिस्तान और मध्ययुगीन यूरोप के कट्टरपंथी ईसाई देशों की तरह एक तुच्छ, नारकीय कूप में गिरने से बचाना चाहते थे, जहाँ पोप लंपट व्याभिचार में लिप्त रहें हो और ईसाइयत के अधम ठगों को भी क्षमादान बेचते रहे हो। उदार प्रभु क्षमा करते है, किन्तु पोप उनकी कीमत निश्चित करते हैं।

आज कोई भी स्वामी लक्ष्मणानंद में प्राण नहीं फूंक सकता है। किन्तु फिर भी, हम उनकी विरासत को, जहाँ तक संभव है, अपने व्यक्तिगत जीवन और अपने सीमित वृत में उनके दिखाए मार्ग पर चलकर पोषित कर सकते हैं। यदि यह अपेक्षा भी अधिक लगती हो तो उनके लिए अश्रु की कुछ बूंदे तो हम बहा ही सकते हैं।

|| ओम तत सत ||

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